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निबंध

लोकमान्य तिलक की पत्रकारिता

कृपाशंकर चौबे


बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक दो दशकों की भारतीय राजनीति का नेतृत्व लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के हाथों में था। उस अवधि को इतिहासकारों ने भारतीय स्वातन्त्र्य संग्राम का तिलक युग कहा है। 1905 से 1918 तक की कालावधि को रेखांकित कर उस युग की सीमा निर्धारित की गई है। 1 हिंदी पत्रकारिता का भी वह तिलक युग है। तिलक उस युग के सच्चे प्रतीक थे, जिन्होंने बड़े तेजस्वी स्वर में घोषणा की थी कि 'स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है' और पूरे देश में पूर्ण स्वराज्य की भूख उत्पन्न की थी। लोकमान्य तिलक के सक्रिय सहयोगियों में लाला लाजपतराय और विपिनचन्द्र पाल थे। इतिहास उन तीनों का एक साथ स्मरण लाल-बाल-पाल के रूप में करता है। तिलक के अनुगामियों में अरविन्द घोष और वे सभी नवयुवक थे जिन्होंने परवर्ती राजनीतिक परिवेश को नई दिशा दी। लाला लाजपत राय, विपिनचंद्र पाल, बालगंगाधर तिलक और ऋषि अरविंद घोष ने पूर्ण स्वराज्य की कामना को वैचारिक अवलम्बन देने के लिए पत्रकारिता को अस्त्र बनाया। लाला लाजपत राय ने लाहौर से 'पंजाबी' और 'पीपुल' नामक समाचार पत्र निकाला तो विपिनचंद्र पाल ने कलकत्ता से अंग्रेजी दैनिक 'वंदेमातरम' निकाला और तिलक ने मराठी साप्ताहिक समाचार पत्र 'केसरी' निकाला।

तिलक ने 'केसरी' का उद्देश्य पत्र मुंबई के 'नेटिव ओपीनियन' नामक पत्र में 1880 की विजयादशमी के दिन प्रकाशित किया। तिलक, विष्णु शास्त्री चिपलूणकर, वामन शिवराम आपटे, डॉ. गणेश कृष्ण गर्दे, गोपाल गणेश आगरकर और महादेव वल्लभ नामजोशी के हस्ताक्षरवाले उद्देश्य पत्र में ऐलान किया गया था, "इस पत्र में अन्य समाचार पत्रों के समान समाचार, राजनीतिक घटनाएं, व्यापारिक समाचार आदि विषय तो आएंगे ही, किन्तु साथ ही साथ इसमें लोगों की दशा पर निबन्ध, नवीन ग्रंथों की समालोचनाएं आदि का भी समावेश किया जाएगा। इसके अलावा विलायत में जिन राजनीतिक प्रश्नों की चर्चा होती है, उन्हें अपने लोगों को बताना आवश्यक होने के कारण उन्हें भी संक्षेप में संकलित करने का हमारा विचार है। उपर्युक्त तीन विषयों पर यानी देश-स्थिति, मातृभाषा के ग्रंथ तथा विलायत की राजनीतिक हलचल के सम्बन्ध में जितना पर्याप्त विवेचन होना चाहिए, उतना किसी भी समाचार-पत्र में नहीं होता है, ऐसा कहने में कोई हानि नहीं, अत: इस भारी न्यूनता को दूर करने का हमने निश्चय किया है। इस समाचार-पत्र में प्रत्येक विषय का जो विवेचन किया जाएगा, वह बिना पक्षपात-बुद्धि के तथा हमें जो ठीक जंचेगा, उसके अनुसार ही करेंगे, ऐसा हमारा संकल्प है। इधर शाही शासन की चापलूसी करने की प्रथा बहुत कुछ बढ़ने लगी है, इसमें सन्देह नहीं। यह प्रथा अत्यन्त अश्लाघ्य तथा देशहित के लिए हानिकारक है, यह कोई भी निर्भीक मनुष्य स्वीकार करेगा, अतः इस समाचार पत्र में लेख उसके नाम के अनुसार ही निकलेंगे, इसका विश्वास रखिएगा।" उस उद्देश्य पत्र को ध्यान में रखते हुए 4 जनवरी 1881 को पुणे से मराठी साप्ताहिक 'केसरी' प्रकाशित हुआ। उद्देश्य पत्र में समाचार पत्र के जिस नाम का उल्लेख किया गया है, उस नाम यानी 'केसरी' के लिए उपयुक्त श्लोक भी विष्णु शास्त्री चिपलूणकर ने जगन्नाथ पंडितराज के काव्य भामिनिविलास में से ढूंढ़ निकाला। भामिनिविलास प्रथम उल्लास का 52वां श्लोक 'केसरी' के प्रवेशांक के मुखपृष्ठ पर छापा गयाः

स्थिति नो रे दध्याः क्षणमपि मरदांधेक्षणसखे-
गजश्रेणीनाथ त्वमिह जटिलायां वनभुवि।
असौ कुंभिभ्रांत्या खरनखरविद्रावितमहा-
गुरुग्रावग्राम: स्वपिति गिरिंगर्भे हरिपतिः।।

अर्थात् हे गजेंद्र! इस जटिल वनभूमि में तुम क्षणभर के लिए भी मत रुको क्योंकि यहां पर्वत गुहा में वह केसरी (हरिपति) सो रहा है जिसने हाथी के माथे जैसी दिखने की भ्रांति में बड़ी-बड़ी शिलाओं को भी अपने कठोर नाखूनों से चूर-चूर कर दिया है।

इस श्लोक के माध्यम से 'केसरी' ने अंग्रेजों को भारत में नहीं रुकने की हिदायत दी और साफ कहा कि भारत शिलाओं को भी चूर करने की सामर्थ्य रखता है। 'केसरी' में आगरकर अर्थशास्त्र, इतिहास तथा सामाजिक विषयों पर और तिलक धर्मशास्त्र और कानून पर लिखा करते थे। 'केसरी' में व्यंग्य लेख भी समय-समय पर छपते थे।

आगरकर के सामाजिक तथा धार्मिक मत तिलक के मतों से विपरीत थे। दोनों में मतभेद का परिणाम यह हुआ कि आगरकर 'केसरी' से अलग हो गए और उन्होंने अपना अलग साप्ताहिक अखबार 'सुधारक' निकाला। तिलक ने शासन तक अपनी भावनाएं पहुंचाने के लिए 2 जनवरी, 1881 से अंग्रेजी साप्ताहिक 'मराठा' का प्रकाशन आरंभ किया। अंग्रेजी समाचार पत्र निकालने के बावजूद तिलक भारतीय भारतीय भाषाओं के पक्षधर थे। उन्होंने 10 अप्रैल, 1888 को 'केसरी' में भारतीय भाषाओं की महत्ता प्रतिपादित करते हुए लिखा था, "भावी बलशाली और स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र में देशी भाषाओं का प्रसार और व्यवहार होना चाहिए।"2

भारत में राजनीतिक जागृति को देखकर अंग्रेजों ने हिंदू और मुस्लिम, ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मणों के बीच मतभेद पैदा किए। वह साम्राज्यवाद को मजबूत करने के लिए शासित लोगों को एकजुट नहीं करने की एक चाल थी। उसे ही तिलक ने 'तोड़ो और भगाओ' की राजनीति कहा। मुंबई में 1893 में हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए तो तिलक ने 'केसरी' के 15 अगस्त 1893 के अंक में 'हिंदू-मुसलमान संबंध' शीर्षक लेख में मुसलमानों को इस तरह समझाया, "इस देश में केवल दो विरोधी पक्ष हैं। अंग्रेजी शासकों का एक पक्ष और शासित प्रजा का दूसरा पक्ष। हिंदू, मुस्लिम, पारसी, सिख, ईसाई आदि के राजनीतिक हित समान हैं। यदि हमें राजनीतिक अधिकार मिले तो सभी के लिए मोक्ष और समृद्धि है। कांग्रेस स्वतंत्रता आंदोलन का सबसे अच्छा हथियार है और यह हिंदुओं और मुसलमानों के बीच भेदभाव नहीं करती है। जैसे हिंदुओं को अपने त्यौहार मनाने का अधिकार है, मुस्लिमों को भी है और सरकार को निष्पक्ष रूप से दोनों की समान रूप से रक्षा करनी चाहिए जब तक कि कोई जानबूझकर दूसरे रास्ते पर नहीं जाता है या मन को चोट पहुंचाने की कोशिश नहीं करता है। ज्ञान का सिद्धांत यह है कि किसी भी धर्म पर गर्व करते हुए दोनों धर्मों को अपने-अपने धर्मों के अनुसार व्यवहार करने की अनुमति दी जानी चाहिए और यदि एक जाति के लोग बिना किसी कारण के दूसरी जाति के लोगों पर आपत्ति करना शुरू कर देते हैं, तो उसके राजा को शासन करना चाहिए।" 3 तिलक ने एक और उपाय सुझाया, "हिंदुओं और मुसलमानों के बीच किसी भी द्वंद्व को कभी भी पूरी तरह से समाप्त नहीं किया जा सकता जब तक कि शिक्षा का व्यापक प्रसार न हो और हमारा वेदांत मुस्लिम धर्म में अधिक मिश्रित न हो। इनमें से सरकार को शिक्षा के प्रसार का कार्य हाथ में लेना चाहिए। बाकी काम मौलवी करेंगे। लेकिन इन दोनों चीजों को होने में कुछ दिन लगेंगे।" 4 तिलक ने इसी लेख में कहा था, "सरकार की कमजोरी से ये दंगे हुए।" 5 22 अगस्त 1893 के अंक में तिलक ने कहा था, "जब हम हिंदू-मुसलमानों के बीच दंगों के कारणों को देखते हैं तब हिंदू और मुसलमान, ये दो ही पक्ष हमारी नजर में आते हैं। लेकिन थोड़ा गहराई से विचार करने पर यह पता चलता है कि हिंदू, मुसलमान और सरकार इन तीनों पक्षों पर ध्यान दिए बिना, दंगों के कारणों का ठीक से पता नहीं चल पाएगा।"6

तिलक ने ब्रिटिश शासन काल में हिंदू-मुसलमान संबंध का भाष्य दादाभाई नौरोजी के विचारों के आईने में भी किया। तिलक ने 'केसरी' के 19 दिसंबर 1893 के अंक में 'राजधर्म के नए उपदेशक का बीज क्या है' शीर्षक लेख में दादाभाई नौरोजी के महान विचारों को संक्षेप में प्रस्तुत करते हुए कहा, "महारानी के संप्रभु शासन के तहत, शांति भारत के सभी भागों में प्रबल है। मराठा, मुस्लिम, सिख और राजपूत अपनी क्षमता के अनुसार राज्य के वैभव का आनंद लेते थे। हमने इसे अपने हाथों में रखा है, और हिंदू, मुस्लिम, पारसी, आदि। उनके गुण और अवगुण में अंतर की परवाह किए बिना, उन सभी को मूल की एक ही श्रेणी में रखा है और उन्हें समान अधिकार और अधिकार दिए हैं; राजनीतिक रूप से शासकों और विषयों के रूप में यह सारांश है। यह सच है कि जातियों के बीच पहले से मौजूद दुश्मनी अंत तक खत्म नहीं होना चाहती। यह तथ्य कि सभी जातियों के सुशिक्षित लोग एकजुट हैं, कांग्रेस जैसे संगठनों और मुंबई दंगों के तथ्य से स्पष्ट है; और यह हमारी आशा है कि अगर ब्रिटिश सरकार का शासन कुछ दिनों तक चलता है, तो हमारा भाईचारा बढ़ता रहेगा और अंततः हम और शासक दो सांसारिक वर्ग बन जाएंगे। लेकिन बताए गए दोनों वर्गों की व्यावहारिक स्थिति एक दूसरे से बहुत अलग है। यह सच है कि हिमालय से कन्याकुमारी तक हर जगह शांति का झंडा लहरा रहा है। इस शांति को बनाए रखने के लिए हमें हर साल अपनी आधी रोटी शासकों और उनके व्यापारी भाइयों को देनी पड़ती है, और हम गरीब और गरीब होते जा रहे हैं। ऐसा सोचने हुए डर लगने लगा है। पुराने जमाने में हिंदू, मुस्लिम और सिखों के भी वही विचार रहे होंगे जो वे अपनी जाति के लिए देखते थे। लेकिन अब आप ऐसा नहीं सोच सकते, इतना ही नहीं, कोई आपको ऐसा करने नहीं देगा। हमारे शासक की शक्ति इतनी प्रबल है कि ऊपर वर्णित जातियों में से वे किसी की व्यर्थ जिद को जारी नहीं रहने देंगे। सभी जातियों और धर्मों के लोगों को जो करना है वह एक दिल से करना चाहिए, चाहे जिनकी ताकत कम या ज्यादा हो, वे किसी के साथ भेदभाव नहीं करना चाहते हैं।" 7

तिलक ने 'केसरी' के 9 अगस्त 1892 के अंक में प्रकाशित 'अंग्रेजी राज्य में हमें क्या लाभ हुआ' शीर्षक लेख में अंग्रेजी राज्य की उपलब्धियों खासकर आधुनिक जीवन शैली, लेखन की स्वतंत्रता, कानून का शासन, आधुनिक विज्ञान पर आधारित आर्थिक और औद्योगिक विकास की नींव, सार्वजनिक स्वास्थ्य और आधुनिक शिक्षा के माध्यम से प्राप्त लोकतांत्रिक स्वशासन की चर्चा की। उन्होंने लिखा, "जिस तरह से हम पश्चिमी शिक्षा से परिचित हुए हैं, हमने यहां राजनीति में आपके अधिकारों की मांग की है और उसके लिए हमने राजनीतिक व्यवस्था के बारे में भी सोचना शुरू कर दिया है।" 8 तिलक ने उसी लेख में कहा, "अंग्रेज राज्य में भले ही शांति है, लेकिन हमारी स्थिति बहुत खराब है। गरीबी हमें जकड़ रही है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि वीरता, नीति, अभिमान, साहस आदि का लुप्त होना निंदनीय है। ऐसे समय में यह प्रश्न उठता है कि क्या हमारे पास इस स्थिति को सुधारने का कोई तरीका है। कई ब्रिटिश दार्शनिकों और ब्रिटिश राजनीतिक नेताओं ने बार-बार तर्क दिया है कि एक जिम्मेदार राज्य व्यवस्था के अधिकार को बरकरार रखा जाना चाहिए। उन्होंने 30 करोड़ लोगों को न्याय दिलाने के लिए नारेबाजी की और दादाभाई की तरह ब्रिटिश संसद में भारत के महाधिवक्ता के रूप में चुने गए और राजनीतिक सुधार धीरे-धीरे हासिल किए जा रहे थे। हमारी सभी मांगों को नहीं, लेकिन कई को मंजूरी दी गई और वापस कर दी गई। ये बातें जायज हैं और हमें एक दिन न्याय जरूर मिलेगा।" 9

एक तरफ ब्रिटिश शासन की अनीति की आलोचना, दूसरी तरफ देशवासियों में राष्ट्रीयता की भावना जगाना, यही 'केसरी' का मकसद था। 'केसरी' के 28 अप्रैल, 1896 के अंक में प्रकाशित 'शिव जयंती का राष्ट्रीय उत्सव' शीर्षक लेख में तिलक ने कहा था, "जिन वीर पुरुषों ने अपने देश का नाम इतिहास में अमर किया है उनके उस कार्य का हम कितना भी अभिनंदन क्यों न करें, हम उनके ऋण से मुक्त नहीं हो सकते। श्री छत्रपति महाराज का उत्सव करने में उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना ही हमारा उद्देश्य है। राष्ट्र के महापुरुषों को स्मरण करना, राष्ट्रीयता की भावना को जगाए रखने का एक अच्छा माध्यम है।" 10 तिलक को ही छत्रपति शिवाजी महाराज का उत्सव शुरू करने का श्रेय जाता है। मई, 1897 में पुणे में प्लेग फैला था। महामारी का प्रभाव कम होने लगा और दैनिक जनजीवन सुचारू रूप से चलने लगा। 12 जून 1897 को शिवाजी के राज्याभिषेक के दिन इतिहास के प्राध्यापक श्री भानू का भाषण हुआ। उन्होंने अफजल खां के मारे जाने पर भाषण दिया और कहा कि इस घटना के लिए छत्रपति शिवाजी महाराज को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। अध्यक्ष के पद से इस बात के समर्थन का समर्थन करते हुए तिलक ने अपने भाषण में इस घटना के पीछे शिवाजी महाराज की बुद्धि का उल्लेख किया। 15 जून 1897 के 'केसरी' में भानू जी के व्याख्यान का सारांश प्रकाशित हुआ। सरकार ने आरोप लगाया था कि तिलक जी के उकसाने पर ही लोगों के मन में राजद्रोह की भावना भड़क उठी है। मुंबई के 'टाइम्स ऑफ इंडिया' अखबार में ऐसा आरोप लगाया गया कि पुणे के ब्राह्मणों ने ब्रिटिश सरकार को गिराने की साजिश की। 29 जुलाई, 1897 को राजद्रोह के आरोप में तिलक को कैद कर लिया गया। सरकार ने आरोप लगाया कि शिवाजी उत्सव में तिलक ने जो भाषण दिया, उसमें सरकार के खिलाफ लोगों को उकसाना उनका उद्देश्य था। ज्यूरी के बहुमत से तिलक जी को दोषी ठहराने के बाद उनसे पूछा गया कि क्या वे कुछ कहना चाहते हैं? इस पर तिलक ने कहा, "ज्यूरी को मैं दोषी लगता हूंगा लेकिन मैं खुद को निर्दोष समझता हूं। राजद्रोह के उद्देश्य से मैंने ये लेख नहीं लिखे हैं और मुझे लगता है कि उनका परिणाम भी ऐसा नहीं होगा। लेख के शब्दों के अर्थ के बारे में जाने-माने विद्वानों की सलाह सरकार को लेनी चाहिए थी, लेकिन वह नहीं ली गई।" 11 इस पर न्यायाधीश स्ट्रैची ने कहा, "मुझे विश्वास है कि पाठकों के मन में सत्ता का विरोध पैदा करने के उद्देश्य से ही आपने ये लेख लिखे हैं। ऐसे बुद्धिमान और होशियार होते हुए आपने ऐसे लेख लिखे, यह बहुत बुरी बात है.. मैं आपको केवल 18 महीनों की सजा का हुक्म देता हूं।" 12 वह सजा काटने के बाद सितम्बर 1898 में तिलक जेल से रिहा हुए। केसरी' पर सरकार की कोप दृष्टि एक स्थायी प्रक्रिया बन गई। तिलक की पहली गिरफ्तारी 1882 में हुई थी। 'केसरी' में राज्य के तत्कालीन दीवान माधवराव बर्वे के सम्बन्ध में लेख प्रकाशित करने पर तिलक और आगरकर पर मुकदमा चला, जिसमें दोनों को चार महीने की सादी कैद की सजा दी गई थी, किन्तु बाद में अच्छे बर्ताव के कारण उन्हें 19 दिन की छूट मिली और वे 26 अक्टूबर सन् 1882 को 107 दिन की सजा काटने पर जेल से रिहा हो गए।

ए.ओ. ह्यूम पर राजद्रोह का मुकदमा चला तो तिलक ने 'केसरी' के 5 अप्रैल 1892 के अंक में 'राजद्रोह' शीर्षक टिप्पणी में उसका भाष्य इस तरह किया, "राजद्रोह शब्द की विवेचना करना थोड़ा कठिन है विशेषतः परसत्ता के अधीन होने पर इस अपराध के लक्षण और सख्त होने की संभावना होती है तब विशेष आफत होती है। किसी भी देश की राजव्यवस्था सभी के लिए दोषमुक्त कभी नहीं हो सकती और अगर वह दोषमुक्त नहीं है तो उसमे व्याप्त दोषों को बाहर निकाल उसमें सुधार के लिए देश के कुछ शुभचिंतक निरंतर प्रयास करते ही रहेंगे।" उसी टिप्पणी में तिलक ने यह भी लिखा, "ह्यूम साहब पर हमारे अंग्रेज बंधुओं ने जो राजद्रोह का आरोप लगाया है, वह कैसे सिद्ध होता है, यह हमारी समझ से परे है। देशहित के लिए लड़ना, बिना अपने स्वार्थ को जाने मेहनत करना यह सब कुछ ह्यूम साहब करते हैं।" 13

तिलक ने 'केसरी' के 24 जनवरी 1893 के अंक में 'हम कैसे उत्पीड़ित हैं' शीर्षक टिप्पणी में लिखा, "सर वेदरबर्न ने सरकारी विभागों के असहनीय अत्याचार को रोकने के लिए तीन उपाय सुझाए हैं। सबसे पहले विधान परिषद में सुधार करना है। सर वेदरबर्न के अनुसार, सरकारी खातों की जांच सुनिश्चित करने के लिए विधान परिषद द्वारा हर साल कई कानून पारित किए जाते हैं। यदि विधान परिषद में लोगों के वास्तविक प्रतिनिधि हैं, तो विभिन्न विभागों को लोगों के अधिकारों और स्वतंत्रता को कमजोर करने के लिए सशक्त बनाने वाले कानूनों को विधान परिषदों द्वारा पारित नहीं किया जाना चाहिए, और फिर इन विभागों के अत्याचार को कम किया जाएगा। एक अन्य उपाय यह है कि ग्राम समाज की संरचना में सुधार करके उसका फिर से उदय किया जाए। स्थानीय स्वशासन की व्यवस्था में नगरपालिकाओं और बोर्डों को छोटी-छोटी शक्तियां दी जायं। वन, आबकारी आदि का हिसाब देकर लोगों के उत्पीड़न को कम करने के लिए भी यही व्यवस्था अपनाई जानी चाहिए। जंगल के लिए जो भी व्यवस्था की जाती है वह ग्राम समाज के माध्यम से की जाय ताकि लोगों को आराम और खुशी मिले। तीसरा उपाय यह है कि कलेक्टरों को सार्वजनिक रूप से नियुक्त ग्राम निकायों, समितियों, बोर्डों और विधान परिषदों की अनुमति और सलाह के साथ काम करने की स्वतंत्रता दी जाए। अगर ब्रिटिश शासक रैयतों के उत्पीड़न को खत्म करने के लिए कोई उपाय नहीं करते हैं, तो यह सब उनकी गलती है।" 14

केसरी के 16 दिसंबर, 1902 के अंक में 'पिछड़ेपन के लिए गुलामी क्यों' शीर्षक लेख में तिलक ने कहा, "साम्राज्यवाद या पिछड़ेपन की एक शातिर लहर जिसने बड़े से बड़े राजनयिकों, धैर्यवान और विचारशील लोगों को भी अपनी चपेट में ले लिया है। हां, अंग्रेज लोग दुनिया के स्वामी हैं, अन्य राष्ट्रों को भगवान ने अपनी खुशी के लिए उपभोक्ता वस्तुओं के संग्रह के रूप में बनाया है, और यह हमारे स्वर्गीय पिता की इच्छा के विरुद्ध है कि वह अन्य राष्ट्रों के लोगों को भी वही अधिकार दे जो परमेश्वर के इन प्यारे बच्चों के समान हैं; इस तरह के विचार धीरे-धीरे अंग्रेजी समाज में फैल रहे हैं। इस पर कोई हमसे पूछेगा कि क्या अंग्रेजी राष्ट्र में फैल रहा यह पिछड़ापन दूसरे देशों को नुकसान पहुंचाएगा और अगर वे देश गुलामी के दलदल में और भी अधिक फंस जाते हैं, तो क्या यह सुधरेगा?"15

तिलक ने अंग्रेजों की गलती टोकने के समानांतर राष्ट्रीय बहिष्कार के लिए लगातार प्रचार अभियान चलाया। 'केसरी' के 5 सितंबर 1905 के अंक में 'बहिष्कार योग' शीर्षक टिप्पणी में तिलक ने लिखा, "बहिष्कार शब्द मूलत: धार्मिक शिक्षा का भाग है। अपितु उसे 'कालापानी' के रूप में राजकीय शिक्षा नीति यानी न्यायिक प्रक्रिया में समाहित किया गया है। इस राजकीय रूपांतरण की तरह ही उसका व्यावहारिक रूपांतरण भी होना चाहिए, ऐसा केसरी में प्रथम वर्ष यानी 1881 में आयरलैंड में उपस्थित लॅडलीग के विषय में लिखते हुए हमने लिखा था। एक बार बहिष्कार का व्यावहारिक शिक्षा में रूपांतरण हो जाने से हम उसका हमारे फायदे के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं, और जिन हजारों बातों की वजह से हमें नुकसान उठाना पड़ता है, उनका अच्छी तरह से इलाज कर सकते हैं, ऐसा उस वक्त हमने कहा था। पंद्रह दिन पहले लिखे हुए राष्ट्रीय बहिष्कार नामक लेख में हमारा यही मत प्रतिपादन था; और वही बराबर है यह हमारा विश्वास है। हिंदुस्तान जैसे सर्वत: अपाहिज हुए देश को अगर हमारी बातें जताना हो तो 'राष्ट्रीय बहिष्कार' यही एकमात्र उपाय है।" 16 उसी टिप्पणी में तिलक ने उन लोगों की कड़ी खबर ली थी जो कहते थे कि देशी सामान उपलब्ध होने के उपरांत विदेशी सामान का बहिष्कार किया जाना चाहिए। उन्होंने लिखा था, "अंग्रेजी अधिकारियों या शासकों के अहंकार को कम करने के लिए हमने जो राष्ट्रीय बहिष्कार 'योग' बताया है, पानी में जाने से पहले तैरना सीखने का विचार उतना ही पागल है; जितना कि देशी सामान तैयार होने के बाद इसका उपयोग करने का निर्णय लेने का विचार।" 17

तिलक जी ने बंगभंग के खिलाफ 'केसरी' के 15 अगस्त, 1905 के अंक में 'आपातकालीन समय' शीर्षक अग्रलेख में लिखा था, "लॉर्ड कर्जन पूरे हिंदुस्तान में रावण की तरह अकेला ही मनमौजी होकर नाचना चाहता है... संपत्ति और सत्ता के अभिमान से उसकी अक्ल पर इतना जबदरस्त पर्दा पड़ा हुआ है कि किसी झूमते हाथी की तरह वह बंगाली क्षेत्र के लोकमत को घास की तरह कुचल रहा है।" जनता की आवाज तीखी होनी चाहिए, यह विचार प्रकट करते हुए तिलक जी आगे लिखते हैं: "नाक दबाए बिना मुंह नहीं खुलता। अतः जब तक हम सरकार को चुभने वाली कोई बात नहीं कहते, तब तक सरकार का घमंड दूर नहीं होगा।"18

22 अगस्त 1905 को प्रकाशित 'अगला कदम क्या होगा' शीर्षक अग्रलेख में तिलक ने लिखा, "मनमानी करनेवाले क्रूर अधिकारियों की आंखें खोलने के लिए उनकी या विलायत के शासकों की मिन्नतें करने के बजाय हमें अधिक कड़वे इलाज करने चाहिए। राष्ट्रीय बहिष्कार उनमें से ही एक इलाज है। इटली, चीन और अमेरिका-इन तीन राष्ट्रों ने बहिष्कार के शस्त्र का किस प्रकार से इस्तेमाल किया, यह बताकर तिलक ने लिखा, "जनता कितनी भी दुर्बल क्यों न हों मगर धैर्य, एकजुटता और आत्मनिर्भरता से बिना शस्त्र के भी वह कितनी भारी पड़ती है, यह बात इतिहास से देखी जा सकती है।" 19

'केसरी' के 5 मार्च 1907 के अंक में 'विधाई व कानूनी' शीर्षक लेख में राजनीतिक सुधारों के सूत्र दिए, "संवैधानिक उपायों से ही हम राजनीतिक सुधार ला सकते हैं और कोई रास्ता नहीं है; क्योंकि ब्रिटिश साम्राज्य की शक्ति अद्वितीय है, कानून से बाहर कदम रखना अनुचित है, इस राय को गोखले और उनके वफादार अनुयायियों ने पुरस्कृत किया। जब किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों के लिए कोई चार्टर नहीं होता है, जब शासक अपनी सुविधानुसार कानून बनाते हैं, तो कानून अनियंत्रित राज्य शक्ति का प्रतीक बन जाता है। अगर लोग उस कानून को तोड़ते हैं तो लोगों के इस व्यवहार को असंवैधानिक नहीं कहा जा सकता। कानून राज्य प्रणाली के अनुरूप है जिसमें लोगों को कानून की नीति तय करने के लिए चार्टर मिला है। भारतीय लोगों को ऐसा चार्टर नहीं मिला है। कानून शब्द के पारंपरिक अर्थों में वैधानिक नहीं है, यह कहा जाना चाहिए कि गवर्नर-जनरल की शक्तियां संसद के कानूनों द्वारा नियंत्रित होती हैं, लेकिन इस मामले में विधायी या संवैधानिक का अर्थ हमारी राज्य व्यवस्था नहीं है। हम जिस चीज के लिए लड़ रहे हैं या संघर्ष कर रहे हैं वह शासकों से विधायी पद्धति प्राप्त करना है और यह अधिकार शासकों से प्राप्त करना है।"20

'केसरी' के 9 अप्रैल 1907 के अंक में 'स्वदेशी व स्वराज्य' शीर्षक टिप्पणी में इन दोनों शब्दों का सुचिंतित भाष्य प्रस्तुत किया, "कई राजनीतिक विचारकों ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का विश्लेषण करते हुए अक्सर कहा है कि भारत की स्वशासन की मांग का मतलब एक विदेशी राज्य नहीं है, एक विदेशी राज्य बुरा और दमनकारी है, यह उतना ही नकारात्मक था जितना इसे नष्ट किया जाना चाहिए। स्वशासन का विचार विरोध की भावना पर आधारित था। जब ऐसा होता है कि प्रजा और राजा दोनों एक ही धर्म, एक ही देश, एक ही जाति और एक ही प्रकार के हित के हों और राजा प्रजा के हितों के लिए सदैव तत्पर और सतर्क रहता है, तब प्रजा शासन करती है। हमें यह सोचना स्वाभाविक है कि 'राम राज्य' भी इसी प्रकार का स्वराज्य था। लेकिन राजा अहंकार या अन्य कारणों से अंधे हो गए और लोगों के हितों की अनदेखी करने लगे या दमनकारी हो गए, लोगों को वैसा राज्य नहीं चाहिए, भले ही वह अपने धर्म या देश का राजा हो। पेशवा के अंत तक, अंतिम बाजीराव का शासन अराजक और दयनीय था। इसलिए, सच्चा स्वराज्य किसी के अपने राजा का राज्य नहीं है, बल्कि स्वराज्य लोगों की व्यवस्था द्वारा संचालित राज्य है।''21

'केसरी' के 11 फरवरी 1908 के अंक में 'राजकीय पक्षोपन्यास' शीर्षक टिप्पणी में तिलक ने उस समय की भारत की राजनीतिक मानसिकता का गहराई से विश्लेषण किया। उन्होंने लिखा, "स्वतंत्रता की इच्छा को मन में रखना मानव स्वभाव का धर्म है। किसी के लिए यह वांछनीय नहीं होगा कि वह अपने मामलों को हमेशा अजनबियों की सहमति से उनकी सहमति के बिना संचालित करे। उन लोगों से जिनका मन पाश्चात्य शिक्षा से प्रबुद्ध हुआ है। इसमें कोई शक नहीं कि यह उनके लिए असहनीय होगा। जबकि पढ़े-लिखे हिंदी लोगों में स्वतंत्रता की बुद्धि बढ़ी है, ऐसा नहीं है कि गोरे लोगों के हाथ में सत्ता कब कम हो जाएगी, यह नहीं जानते। लेकिन चाहे कुछ भी हो जाए, आज की मौत कल पर टाल दी जाती है; और इसे ध्यान में रखते हुए, श्वेत वर्चस्ववादी अब तानाशाही चला रहे हैं। शासक की दृष्टि से इस देश में जनता का सच्चा राजनीतिक दल छोटे और सीमित रूप में है। हमेशा एक ऐसा वर्ग था जब किसी भी देश में विदेशी शासन सुचारू रूप से चल रहा था। यह वर्ग राजनीतिक आंदोलन में शामिल नहीं हो सकता है और अगर इसमें शामिल होता है, तो यह प्रभुचारिणी के संक्रामक पाप की पेशकश करके हमसे जुड़े कलंक से छुटकारा पायेगा। बड़ा सवाल यह है कि इस तरह के चर्च की उत्पत्ति किसी भी देश में किसी भी समय क्यों होनी चाहिए। राजनीतिक दृष्टि से यह वर्ग विदेशी सरकारों का हितैषी है। विदेशी सरकार ने हमारे देश को कैसे लाभ पहुंचाया है, इसका विस्तृत विवरण देकर यह विदेशी सरकार के अन्याय और अत्याचार को छिपाने की कोशिश करता है। इस छोटे से वर्ग को छोड़कर बाकी वर्गयह कहा जाना चाहिए कि वे स्वराज्यवादी हैं। दूसरे वर्ग का कहना है कि शासकों की कमियाँ उनके संज्ञान में आती हैं और वे उतनी ही उदासीनता से बोलते हैं जितनी उन्हें उनसे छुटकारा पाने की आवश्यकता होती है। उन्हें अंग्रेजी राज्य का आलोचक कहने में कुछ भी गलत नहीं है, वे खुले तौर पर स्वशासन की मांग नहीं करते हैं। तीसरा वर्ग मानता है कि स्वराज्य ही हमारा अंतिम लक्ष्य है। लेकिन यह वर्ग सोचता है कि शासकों को खुश रखने से स्वशासन प्राप्त करना संभव है। वर्तमान राज्य व्यवस्था की खामियां उसके वास्तविक स्वरूप की खामियां हैं। यह वर्ग यह भी दावा करता है कि उस दोष को मिटाने के लिए स्वराज्य के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। शासक न्यायप्रिय होने के कारण उन्हें लगता है कि समय के साथ उनकी परोपकारी बुद्धि का विकास होगा और स्वराज्य का पैमाना हिन्दी के लोगों के स्थान पर रखने से वे मुक्त हो जायेंगे। इससे आगे हमारा वर्ग कहता है कि आत्मनिर्भरता से ही आत्मनिर्भरता प्राप्त की जा सकती है, शासकों की बुद्धि से नहीं; क्योंकि उन्होंने स्वार्थ को कभी नहीं छोड़ा। यह कहने में संकोच न करें कि यह स्वराज्य ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन एक स्वराज्य है, यह स्वराज्य पूर्ण स्वतंत्रता से कम नहीं है; यह अपने आप में अंत नहीं है। हालाँकि, स्वशासन के अधिकार के इस अधिग्रहण के साथ, राजनीतिक प्रगति का चरण अंतिम लक्ष्य के बहुत करीब होगा। हमारी पार्टी इंसानों के मन में स्वतंत्रता के ज्ञान को छिपाना नहीं चाहती है। इससे आगे के वर्ग ने कहा कि शीघ्र ही स्वतंत्रता का अर्थ पूर्ण स्वतंत्रता है। मौजूदा हालात में इन लोगों की संख्या थोड़ी है। इन पाँच वर्गों में से प्रथम को छोड़कर शासकों की दृष्टि में अन्य सभी कमोबेश देशद्रोही थे।"22

'केसरी' के तीन मार्च 1908 के अंक में 'अडचणीचा निर्वाह' शीर्षक टिप्पणी में तिलक ने नेशनल असेंबली में, सभी स्वघोषित और स्वतंत्रतावादी, याचिकाकर्ता या आत्मनिर्भर को एक साथ काम करना चाहिए। जिस तरह हिंदू धर्म केवल शैवों के लिए नहीं है और वैष्णववाद के लिए नहीं है, वैसे ही नेशनल असेंबली केवल जाहलों या मावलों के लिए नहीं है। अंतिम लक्ष्य जो भी हो। इसलिए हमें राष्ट्र की समृद्धि की नींव रखने के प्रयास में हाथ मिलाना चाहिए। भगवान ने अज्ञानियों या गरीबों को राष्ट्र के अंतिम हित के बारे में सोचने की शक्ति नहीं दी। यह दोनों को ध्यान में रखना चाहिए। जैसे इन जाति भेदों को भुला देना चाहिए, वैसे ही अंतरों को अंतिम उद्देश्य में रखना चाहिए। वह उन्हें और अधिक लोकप्रिय बनाने के लिए अपने विचार व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र हैं।नेशनल असेंबली में बहुमत को नई चरमपंथी पार्टी से सहमत होना चाहिए। उन्हें यह नहीं कहना चाहिए कि वह नेशनल असेंबली में बहुमत के खिलाफ जाएंगे। यदि आवश्यक हो तो प्रत्येक दल को लोगों को जगाने के लिए बैठक के बाहर अपना वोट डालना चाहिए। संसद में लेबर या रेडिकल पार्टी बहुमत में पुरानी पार्टी के खिलाफ जनमत संग्रह को पुनर्जीवित करने के लिए स्वतंत्र है। इसी तरह पुरानी और नई पार्टियों को भी लोगों को जगाने के लिए अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार होना चाहिए। दोनों दलों के बीच निरंतर संघर्ष ही राष्ट्र की प्रगति का साधन है। इस संघर्ष को कायम रखते हुए दोनों पक्षों को एक साथ आना चाहिए और विशिष्ट कार्यों के लिए विशिष्ट नियमों के साथ संसद में विभिन्न दलों की तरह व्यवहार करना चाहिए। भारत जैसे विशाल राष्ट्र में, किसी एक दल के विचार हमेशा अपील या स्वीकार नहीं किए जाएंगे। भौतिकी में एक नियम है कि बिना घर्षण के गति उत्पन्न नहीं होती, यही नियम किसी राष्ट्र की प्रगति पर भी लागू होता है। जहां गति होती है वहां घर्षण होता है और वह होना ही चाहिए। हालांकि, राजनीतिक मामलों में दोनों पक्षों के बीच घर्षण को कम करने के लिए, विचार की स्वतंत्रता और भाषण की स्वतंत्रता के साथ हाउस ऑफ कॉमन्स की प्रक्रिया के नियमों का निर्णय लेना और उनका पालन करना आवश्यक है। नेशनल असेंबली की राष्ट्रीयता बनाए रखने के लिए दोनों पक्षों को शामिल होना चाहिए।"23

मुजफ्फरपुर में 30 अप्रैल 1908 को जो बम विस्फोट हुआ, उसकी प्रतिक्रिया पूरे देश में हुई। उस विषय पर तिलक ने 'केसरी' में 12 मई को 'दे दुर्दैव' शीर्षक अग्रलेख लिखा। इसमें हिंसा की कड़ी निंदा की गई। लेकिन उसके साथ-साथ तिलक ने यह मत भी व्यक्त किया कि लोगों की आजादी की आकांक्षा को दबाने के कारण ही यह हिंसा भड़क उठी है। 24 जुलाई, 1908 को शाम छह बजे तिलक को मुंबई के सरदार गृह में राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया और डोंगरी के जेल में भेज दिया गया। अंत में न्यायमूर्ति दावर ने तिलक को छह वर्ष की कालापानी की सजा सुनाई और मुकदमे का अध्याय खत्म हो गया। तिलक को स्पेशल ट्रेन से अहमदाबाद ले जाया गया और साबरमती जेल में रखा गया। बाद में 10 सितंबर को उन्हें मुंबई लाया गया। बंदरगाह में 'हार्डिज' नाम की बोट तैयार ही थी। उसमें उन्हें बिठाया गया। 22 सितंबर को वे रंगून पहुंचे। वहां से उन्हें मांडले ले ज़ाया गया। तब से उनकी रिहाई तक के लगभग साढ़े पांच वर्ष वहीं बीते।24

तिलक को देश निकाले की सजा के बाद, 28 जुलाई, 1908 से डेढ़ वर्ष तक खाडिलकर केसरी के सम्पादक-प्रकाशक रहे। तिलक को सजा सुनाई जाने के प्रसंग मे केलकर ने केसरी में तिलक को सूर्य और न्यायमूर्ति दावर को खद्योत करार दिया। इसी आधार पर केलकर को 29 सितम्बर 1908 को 1000 रु. दण्ड, 200 रु. कोर्ट खर्च और 14 दिन की कैद की सजा हुई। तदन्तर शिवराम महादेव पंराजपे को भी राजद्रोह के आरोप में 19 महीने की सख्त कैद की सजा दी गई। उन्हें अहमदाबाद के साबरमती जेल में रखा गया। 1909 में ग्वालियर तथा इंदौर रियासत ने 'केसरी' पर प्रतिबंध लगा दिया। 1910 में निजाम हैदराबाद ने भी अपनी रियासत में केसरी का प्रवेश रोक दिया। 1910 में एक्ट लागू हो जाने के बाद सरकार ने 'केसरी' से 5000 रुपये की जमानत ली। 'मराठा' से भी एक हजार रु. जमानत तलब की गई। मंडाले की जेल में रहते हुए भी तिलक को अपने समाचार पत्रों की चिन्ता थी। उन्होंने सम्पादकों को सलाह लिख भेजी -"कानून के दायरे में रहना तुम्हारा कर्तव्य है, चाहे वह कितना भी कठोर हो। जो कुछ भी स्वतंत्रता हो, उसका पूरा पूरा उपयोग कर लेना चाहिए। वस्तुस्थिति के अनुसार ही चलना चाहिए। आपको ऐसा नहीं समझना चाहिए कि शासन की कार्रवाई के खिलाफ हाईकोर्ट में आपको मिलेगा। ऐसे भ्रम में मत रहो।" 21 अगस्त, 1909 को तिलक ने केलकर को कार्यनीति सम्बंधी मार्गदर्शन भी भेजा-'केसरी' में अधिक सामग्री खाडिलकर को लिखना चाहिए, क्योंकि कई वर्षों से वे केसरी के लिए लेख लिख रहे हैं। (2) इसी कारण से 'मराठा' के लिए अधिक सामग्री केलकर को लिखना चाहिए। (3) दोनों समाचार पत्र शब्दश: एक ही विचार के न लिखते हों तो भी चलेगा परन्तु उनकी गति एक ही दिशा की ओर होनी चाहिए। इन तीनों बातों में अपनी संस्था का अभिहित है। केलकर और खाडिलकर में सम्पादक के पद हेतु संघर्ष चल रहा था। इस सन्दर्भ में तिलक ने लिखा, "किस पत्र का सम्पादक कौन है, यह मुख्य समस्या नहीं है। समाचार पत्र पुरानी नीति के अनुसार चल रहे हैं या नहीं, यह देखना ही महत्व का है। दो आँखों की अपेक्षा चार आँखें अच्छी, इसलिये खाडिलकर के बाद केलकर को भी देखना चाहिए।" 25 'लंदन टाइम्स' के संवाददाता वेलेन्टाइन चिरोल ने भारत का दौरा करने के बाद लिखी अपनी पुस्तक 'इण्डियन अनरेस्ट' में बाल गंगाधर तिलक को 'फादर आफ इण्डियन अनरेस्ट' (भारत में असंतोष के जनक) निरूपित किया। अंग्रेज की दृष्टि से यह निंदापरक टिप्पणी हो सकती है, परन्तु भारतीयों की नजर में यह असाधारण सम्मान कहा जाएगा। तिलक की साठवीं वर्षगांठ पर उन्हें एक लाख रुपये की थैली भेंट की गई। उसी दिन पुणे के कलेक्टर ने 20 हजार रु. का मुचलका भरने और 10-10 हजार की दो जमानतें माँग लीं।

9 अक्टूबर 1917 को तिलक ने 'केसरी' में 'एक स्वर से निर्णायक मांग करो' शीर्षक अग्रलेख लिखा जिसमें उन्होंने आह्वान किया कि स्वराज्य की मांग का सभी को समर्थन करना चाहिए। उस अग्रलेख में उन्होंने कहा, "महान युद्ध ने यूरोप में राजनीतिक विचारों में क्रांति ला दी है, और स्वतंत्रता, समानता, लोकतंत्र, आदि के मुद्दे महत्वपूर्ण हो गए हैं। भारत की संप्रभुता है। यह कुछ जातियों या भारत का सवाल नहीं है। यह ब्रिटिश साम्राज्य और मानव जाति के प्रसार के हितों का सवाल है। अगर हिंदुस्तान को पहले आत्मनिर्णय का अधिकार दिया गया होता, तो उसका रूप अलग दिखता।"26

'केसरी' में प्रकाशित तिलक का समस्त लेखन चार खंडों में प्रकाशित है। 'लोकमान्य तिलकांचे केसरीतील' लेख शीर्षक से उन खंडों का प्रकाशन केसरी मराठा संस्था ने क्रमशः 1922, 1923, 1924 और 1930 वर्ष में किया। चारों खंडों के कुल पृष्ठों की संख्या 2447 है। सभी खंडों में नरसिंह चिंतामणि केलकर की संक्षिप्त प्रस्तावना है। इसके अलावा साहित्य अकादेमी ने 1969 में 'केसरी' में प्रकाशित तिलक के प्रतिनिधि लेखों का एक संग्रह 'लोकमान्य तिलक लेख संग्रह' शीर्षक से प्रकाशित किया। उसमें तिलक के चयनित लेखों को सात खंडों में वर्गीकृत किया है और वे खंड हैं- 1. प्रथम सामाजिक या राजनीतिक, खंड 2. स्वराज्य यह जन्मसिद्ध हक्‍क, खंड 3. कांग्रेस अर्थात राष्ट्रीय सभा, खंड 4. हिंदू-मुस्लिम संबंध, खंड 5. परतंत्र भारत की आर्थिक समस्या, खंड 6. शैक्षणिक प्रश्न तथा राष्ट्रीय शिक्षण एवं खंड 7. धर्म एवं तत्व ज्ञान (शिवाजी उत्सव, गणेश उत्सव और राष्ट्रीय उत्सव की आवश्यकता; धर्म एवं तत्त्वज्ञान और मशहूर हस्तियां)।

संदर्भः

1. मिश्र, कृष्णबिहारी (1968), हिंदी पत्रकारिताः जातीय चेतना और खड़ी बोली साहित्य की निर्माण भूमि, दिल्लीः भारतीय ज्ञानपीठ, पृष्ठ-289

2. 'केसरी', 10 अप्रैल, 1888

3. 'केसरी', 15 अगस्त 1893

4. वही

5. वही

6. 'केसरी', 22 अगस्त 1893

7. 'केसरी',19 दिसंबर 1893

8. 'केसरी', 9 अगस्त 1892

9. वही

10. 'केसरी', 28 अप्रैल, 1896

11. प्रधान, ग.प्र. (2000), कर्मयोगी लोकमान्य तिलक, (अनु. पुणतांबेकर, वासंतिका), दिल्लीः राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, पृष्ठ-22

12. वही

13. 'केसरी', 5 अप्रैल 1892

14.'केसरी', 24 जनवरी 1893

15. 'केसरी', 16 दिसंबर, 1902

16. 'केसरी', 5 सितंबर 1905

17. वही

18. 'केसरी', 15 अगस्त 1905

19. 'केसरी', 22 अगस्त 1905

20.'केसरी', 5 मार्च 1907

21. 'केसरी', 9 अप्रैल, 1907

22. 'केसरी', 11 फरवरी 1908

23. 'केसरी', तीन मार्च 1908

24. प्रधान, ग.प्र. (2000), कर्मयोगी लोकमान्य तिलक, (अनु. पुणतांबेकर, वासंतिका), दिल्लीः राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, पृ.42

25. श्रीधर, विजय दत्त ( 2010), भारतीय पत्रकारिता कोश खंड एक, दिल्लीः वाणी प्रकाशन, पृष्ठ-313

26. 'केसरी', 9 अक्टूबर 1917

सहायक ग्रंथ

जोशी, तर्कतीर्थ लक्ष्णण शास्त्री (1969), लोकमान्य तिलक लेख संग्रह (लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक यांचा केसरीतील निवडक लेख संग्रह) दिल्लीः साहित्य अकादमी

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हिंदी समय में कृपाशंकर चौबे की रचनाएँ